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गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट

अमृत के घूँट

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5984
आईएसबीएन :81-293-0130-X

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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....

पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!

'स नो मुञ्चत्वंहसः' (अथर्ववेद ४। २३। १)
'वह ईश्वर हमें पापसे मुक्त करे।'

'पाप एक वृक्षके समान है, उसका बीज है लोभ। मोह उसकी जड़ है। असत्य उसका तना और माया उसकी शाखाओंका विस्तार है। दम्भ और कुटिलता पत्ते हैं, कुबुद्धि फूल है और नृशंसता उसकी गन्ध तथा अज्ञान फल है। छल, पाखण्ड, चोरी, ईर्ष्या, क्रूरता, कूटनीति और पापाचारसे युक्त प्राणी उस मोह-मूलक वृक्षके पक्षी हैं, जो मायारूपी शाखाओंपर बसेरा लेते हैं। अज्ञान उस वृक्षका फल है और अधर्मको उसका रस बतलाया गया है। तृष्णारूप जलसे सींचनेपर उसकी वृद्धि होती है। अश्रद्धा उसके फूलने-फलनेकी ऋतु है। जो मनुष्य उस वृक्षकी छायाका आश्रय लेकर सन्तुष्ट रहता है, उसके पके हुए फलोंको खाता है और उन फलोंके अधर्मरूप रससे पुष्ट होता है, वह ऊपरसे कितना ही प्रसन्न क्यों न हो, वास्तवमें पतनकी ओर ही जाता है। इसलिये पुरुषोंको चिन्ता छोड़कर लोभका त्याग कर देना चाहिये। स्त्री, पुत्र और धनकी चिन्ता तो कभी करनी ही नहीं चाहिये। कितने ही विद्वान् भी मूर्खोंके मार्गका अवलम्बन करते हैं। कितने दिन-रात मोहमें डूबे रहकर निरन्तर इसी चिन्तामें पड़े रहते हैं कि किस प्रकार मुझे अच्छी स्त्री मिले और कैसे मैं बहुत-से पुत्र प्राप्त करूँ?'

चाहे आप किसी अत्यन्त एकान्त गुफामें कोई पापकर्म, असुन्दर कृत्य, घृणास्पद काम कर लें, रात्रिके गहन अन्धकारमें उसे छिपानेका प्रयत्न करें, किंतु विश्वास रखिये, पाप ऐसा कुटिल है कि वह स्वयं  पुकार-पुकारकर अपना ढोल पीटता है। आपके पैरोंके नीचेकी घास खड़ी होकर आपके पापके विरुद्ध साक्षी देगी; आपके इर्द-गिर्द खड़े हुए वृक्ष भी जिह्वा खोलकर आपके विरुद्ध कहेंगे, उनके पत्ते-पत्ते उद्बोधन कर उठेंगे कि आप प्रकृतिको, इस कुदरतको धोखा नहीं दे सकते।

प्रकृतिके, परमेश्वरके, उस जगत्-नियन्ताके पापकर्मको देखकर सजा देनेके लिये सहस्रों नेत्र, असंख्य कान तथा अनगिनत हाथ हैं। वह दिन-रात चौबीसों घण्टे आपकी विभिन्न लीलाएँ-मुद्राएँ निहारा करता है और आपको पापसे बचनेकी प्रेरणा दिया करता है। पापकी सजा अवश्य मिलती है। ईश्वर दुष्कर्मकी सजा देनेमें किसीसे रू-रियायत नहीं करता!

पाप एक ऐसी घृणित दुष्प्रवृत्ति है, जो नाना रूपों, आकृतियों और अवस्थाओंमें मनुष्यपर आक्रमण किया करती है और जिससे सावधान रहनेकी बड़ी आवश्यकता है। कहते हैं, मनुष्यके दिव्य मनके किसी अज्ञात कोनेमें मैल और कूड़े-करकटकी तरह शैतानका भी निवास है। जहाँ पुष्पोंसे सुरभित काननका सुन्दर स्थल है, वहाँ काँटोंसे भरे बीहड़ वन भी हैं। जहाँ सद्ज्ञानका दिव्य प्रकाश है, वहीं कहीं-कहीं घनघोर अन्धकार भी है। यही अन्धकार पापकी ओर प्रवृत्त कर मनुष्यके अधःपतनका कारण बनता है।

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    अनुक्रम

  1. निवेदन
  2. आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
  3. हित-प्रेरक संकल्प
  4. सुख और स्वास्थ के लिये धन अनिवार्य नहीं है
  5. रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
  6. चिन्ता एक मूर्खतापूर्वक आदत
  7. जीवन का यह सूनापन!
  8. नये ढंग से जीवन व्यतीत कीजिये
  9. अवकाश-प्राप्त जीवन भी दिलचस्प बन सकता है
  10. जीवन मृदु कैसे बने?
  11. मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
  12. अपने विवेकको जागरूक रखिये
  13. कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
  14. बेईमानी एक मूर्खता है
  15. डायरी लिखने से दोष दूर होते हैं
  16. भगवदर्पण करें
  17. प्रायश्चित्त कैसे करें?
  18. हिंदू गृहस्थ के लिये पाँच महायज्ञ
  19. मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
  20. पाठ का दैवी प्रभाव
  21. भूल को स्वीकार करने से पाप-नाश
  22. दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति
  23. एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
  24. सुख किसमें है?
  25. कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
  26. समस्त उलझनों का एक हल
  27. असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
  28. हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
  29. भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
  30. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
  31. सात्त्विक आहार क्या है?
  32. मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
  33. तामसी आहार क्या है?
  34. स्थायी सुख की प्राप्ति
  35. मध्यवर्ग सुख से दूर
  36. इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
  37. जीवन का स्थायी सुख
  38. आन्तरिक सुख
  39. सन्तोषामृत पिया करें
  40. प्राप्त का आदर करना सीखिये
  41. ज्ञान के नेत्र
  42. शान्ति की गोद में
  43. शान्ति आन्तरिक है
  44. सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
  45. आत्मनिर्माण कैसे हो?
  46. परमार्थ के पथपर
  47. सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
  48. गुप्त सामर्थ्य
  49. आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
  50. अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
  51. पाप से छूटने के उपाय
  52. पापसे कैसे बचें?
  53. पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
  54. जीवन का सर्वोपरि लाभ
  55. वैराग्यपूर्ण स्थिति
  56. अपने-आपको आत्मा मानिये
  57. ईश्वरत्व बोलता है
  58. सुखद भविष्य में विश्वास करें
  59. मृत्यु का सौन्दर्य

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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